Marks on Stone
Marks on Stone- उस समय की बात है जब पढ़ने के लिए आश्रम में गुरु के पास ही रहना पड़ता था। बालक वरदराज के पाँच वर्ष का जाने पर उसके पिता ने पढ़ने के लिए गुरु के पास आश्रम भेज दिया जहाँ कई बालक पढ़ते थे और गुरु की सेवा सरते थे। वरदराज पढ़ने में बहुत कमजोर था। उसे कुछ भी याद नहीं रहता था। गुरूजी ने उसे अलग से भी पढ़ाने का प्रयत्न किया मगर कोई लाभ नहीं हुआ।
उसके सहपाठी उसे रोज बुद्धू, मूर्खराज आदि कहकर चिढ़ाने लगे। वरदराज देखने में सुन्दर, सुशील, हष्ट-पुष्ट बालक था, मगर पढ़ाई में एकदम कमजोर। पॉँच वर्ष बीत जाने पर भी उसे लिखना-पढ़ना नहीं आया।
एक दिन गुरूजी ने निराश होकर उससे घर जाने और घर का काम-काज करने के लिए कहा। वरदराज के पिता बहुत विद्धान थे। वरदराज यह सोचते हुए कि वह अपने पिता को क्या मुँह दिखायेगा, अपने सामान की गाँठ बाँधी और गुरूजी के चरण छूकर आश्रम से चल दिया।
दोपहर का समय हो गया था, अतः: उसे भूख लगी। गुरुजी का दिया हुआ सत्तू गठरी में से निकाला और खाया। सामने ही एक कुएँ पर पानी पीने गया, जहाँ कुछ स्त्रियाँ पानी भर रही थीं। कुएँ की जगत पर रस्सी खींचने की जगह निशान बने हुए जिन्हें देखकर वरदराज के मन में जिज्ञासा हुई। उसने उन स्त्रियों से पूछा कि ये निशान किसने बनाए हैं।
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उसकी बात सुनकर स्त्रियाँ हँसने लगीं और उनमें से एक ने कहा कि ये बनाये नहीं हैं, ये तो कुएँ से पानी खींचते समय रस्सी की रगड़ से बन गये हैं। यह सुनकर वरदराज सोचने लगा कि जब कोमल रेशों से बनी रस्सी की रगड़ से कठोर पत्थर पर निशान बन सकते हैं तो क्या मैं लगातार परिश्रम करके पढ़-लिख नहीं सकता?
वरदराज कठिन परिश्रम और अभ्यास का संकल्प लेकर गुरु के आश्रम की ओर चल दिया। गुरुजी ने उसे देखकर वापस आने का कारण पूछा तो वरदराज ने नम्रतापूर्वक कहा कि गुरुजी, मैं तो घर ही जा रहा था; परन्तु रास्ते में से ही लौट आया।
अब मैं लगन और परिश्रम से पढ़ाई करुंगा और आपको कुछ भी कहने का अवसर नहीं दूंगा। गुरुजी ने उसे आश्रम में रख लिया और पढ़ाना शुरू किया। वरदराज पढ़ाई में इतना मग्न हो गया कि उसे भुख-प्यास, रात-दिन का भी ध्यान नहीं रहता था। बाद में वह प्रसिद्ध विद्धान बन गया।
शिक्षा :
लगातार परिश्रम करते रहने पर सफलता अवश्य मिलती है।