Santoshi Mata Vrat katha – संतोषी माता की व्रत कथा

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Santoshi Mata Vrat katha

सिध्द सदन सुन्दर बदन गणनायक महाराज | दास आपका हूँ सदा कीजै जन के काज ||
जय शिव शंकर गंगाधर जय जय उमा भवानी | सियाराम कीजै कृपा हरि राधा कल्याणी ||
जय सरस्वती जय लक्ष्मी जय जय गुरु दयाल | देव विप्र औ संत जय भारत देश विशाल ||
चरण कमल गुरुजन के नमन करू मैं शीश | मो घर सुख – सम्पति भरो देकर शुभ आशीष ||

संतोषी माता के व्रत की विधि

संतोषी माता के पिता गणेश, माता रिद्धि -सिद्धि, धन -धान्य, सोना -चाँदी, मोती -मूंगा रत्नो से भरा परिवार, गणपति पिता के दुलार भरी गणपति देव की कमाई दरिद्रता दूर, कलह का नाश, सुख -शांति का प्रकाश, बालको की फुलवारी, धंधे में मुनाफे से भरी कमाई, मन की कामना पूर्ण, शोक – विपत्ति चिंता सब पूर्ण। संतोषी माता का लो नाम , जिससे बन जाये सारे काम , बोलो संतोषी माता की जय |

इस व्रत को करने वाला कथा कहते व सुनते समय हाथ में गुड़ व भुने हुए चने रखें, सुनने वाले संतोषी माता की जय! संतोषी माता की जय ! इस प्रकार जय -जयकार मुख से बोलते जायें ! कथा समाप्त होने पर हाथ का गुड़ -चना गौ माता को खिलावे कलश में रखा हुआ गुड़ – चना सबको प्रसाद के रूप में बाँट दें , कथा से पहले जल को कलश से भरे , उसके ऊपर गुड़ – चने से भरा कटोरा रखें, कथा समाप्त होंने और आरती समाप्त होने के बाद कलश के जल को घर में सब जगहों पर छिड़के और बचा हुआ जल तुलसी के पौधे में डाल देवें ! पांच रूपये का गुड़ -चना लेकर माता का व्रत करे।

Santoshi Mata Vrat katha

गुड़ घर में होव तो ले लेवे विचार न करे, श्रद्धा और प्रेम मन में रखकर प्रसन्ता से करे। व्रत के उद्यापन में अढ़ाई सेर खाना, मोमनदार पूड़ी, खीर, चने का साग , नैवेद्य रखे, घी का दीपक जलाकर, संतोषी माता की जय -जयकार बोल नारियल फोड़े।

इस दिन घर में कोई खटाई न खावे और न आप खाये इस दिन आठ लड़को को भोजन करावें , देवर – जेठ घर – कुटुम्ब के लड़के मिलते हों तो दूसरों को नहीं बुलाएं। उन्हें खटाई की कोई वस्तु न दें तथा भोजन कराकर यथाशक्ति दक्षिणा देवें। नकद पैसा न दे , कोई वस्तु दक्षिणा में दे , व्रत करने वाला कथा सुन , प्रसाद ले,एक समय भोजन करें, इस तरह से माता अत्यंत खुश होगी और दुःख दरिद्रता दूर कर आपकी सब मनोकामना पूरी करेंगी। 

संतोषी माता की व्रत कथा प्रारम्भ

एक बुढ़िया थी और उसके साथ पुत्र थे, छः कमाने वाले थे और एक निकम्मा था। बुढ़िया माँ छहों पुत्रों की रसोई बनाती, भोजन कराती और बाद में जो कुछ बचता वो सातवें को दे देती थी। परन्तु वह बड़ा भोला – भाला था, मन में कुछ विचार न करता था। एक दिन अपनी बहू से बोला – देखो! मेरी माता का मुझ पर कितना प्यार हैं। वह बोली – क्यों नहीं, सबका जूठा बचा हुआ तुमको खिलाती हैं।

वह बोला – भला ऐसा भी कभी हो सकता हैं, मैं जब तक आँखों से न देखू, मान नहीं सकता। बहू ने हसकर कहा – तुम देख लोगे तब तो मानोगे। कुछ दिन बाद बड़ा त्यौहार आया। घर में साथ प्रकार के भोजन और चूरमा के लड्डू बने। वह जांचने को सिर दर्द का बहाना कर पतला कपड़ा सिर पर ओढ़कर रसोई घर में सो गया और कपड़े में से सब देखता रहा। छहों भाई भोजन करने आये, उसने देखा माँ ने उनके लिए सुंदर – सूंदर आसन बिछाये हैं, सात प्रकार की रसोई परोसी हैं, वह आग्रह करके उन्हें भोजन करती हैं। वह देखता रहा।

छहो भाई भोजन कर उठे तब माता ने उनकी जूठी थालियों में से लड्डुओं के टुकड़ो को उठाया और एक लड्डू बनाया, जूठन साफ कर बुढ़िया माँ ने पुकारा – उठो बेटा! छहो भाई भोजन कर गए अब तू ही बाकी हैं, उठ न, कब खायेगा ? वह कहने लगा – माँ मुझे भोजन नहीं करना। में प्रदेश जा रहा हु। माता ने कहा – कल जाता हो तो आज ही जा। वह बोला – हां हां, आज ही जा रहा हु। यह कहकर वह घर से निकल गया। चलते समय बहू की यद् आई वह गोशाला में कपड़े धो रही थी, वही जाकर

उससे बोला –
दोहा – हम जावे प्रदेश को आवेंगे कुछ काल। तुम रहियो संतोष से धर्म आपनो पाल ||
वह बोली जाओ पिया आनंद से हमंरू सोच हटाय। राम भरोसे हम रहे ईश्वर तुम्हे सहाय ||
देख निशानी अपनी देख धरु में धीर। सुधि हमारी मति बिसराइयो रखियो मन गंभीर ||

वह बोला – मेरे पास तो कुछ नहीं, यह अंगूठी हैं तू रख ले और अपनी कुछ निशानी मुझे दे। वह बोली – मेरे पास क्या है यह गोबर भरा हाथ है। यह कहकर उसने उसकी पीठ पर गोबर के हाथ की था मार दी। वह चल दिया। चलते -चलते दूसरे देश में पहुंचा।

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वहा पर एक साहूकार की दुकान थी, वहा जाकर कहने लगा – भाई मुझे नौकरी पर रख लो। साहूकार को जरूरत थी , बोला – रह जाओ। लड़के ने पूछा – तनख्वाह क्या दोगे? साहूकार ने कहा – काम देखकर दाम मिलेंगे। साहूकार के यह नौकरी मिली, वह सवेरे सात बजे से देर रत तक नौकरी करने लगा।कुछ दिनों में दुकान का सारा लेन – देन, हिसाब किताब, ग्राहकों को माल बेचना, सारा काम करने लगा।

साहूकार के 7 – 8 नौकर थे, वे सब चक्कर खाने लगे की यह तो बहुत होसियार बन गया है। सेठ ने भी काम देखा और 3 महीने में उसे आधे मुनाफे का साझीदार बना लिया। वह 12 वर्ष में ही नामी सेठ बन गया और मालिक सारा कारोबार उस पर छोड़ कर बाहर चला गया। अब बहू पर क्या बीती वो सुनो। सास – ससुर उसे दुःख देने लगे। सारी गृहस्ती का काम करके उसे लकड़ी लेने जंगल में भेजते इस बिच घर की रोटियों के आटे से जो भूसी निकलती उसकी रोटी बनाकर रख दी जाती और फूटे नारियल के खोपरे में पानी। 

इस तरह दिन बीतते रहे एक दिन वह लकड़ी लेने जा रही थी की रस्ते में बहुत – सी स्त्रियाँ संतोषी माता का व्रत करती दिखाई दी। वह वहां खड़ी हो कथा सुनकर बोली – बहिनो! यह तुम किस देवता का व्रत करती हो और इसके करने से क्या फल मिलता है? इस व्रत के करने की क्या विधि है? यदि तुम अपने व्रत की विधि मुझे भी समझा दोगी तो माँ तुम्हारा अहसान मानूंगी।

तब उनमे से एक स्त्री बोली – सुनो यह संतोषी माता का व्रत है, इसके करने से निर्धनता, दरिद्रता का नाश होता है, लक्ष्मी आती है। मन की चिंता दूर होती है। घर में सुख होने से मन को प्रश्नता और शांति मिलती है। निः पुत्र को पुत्र मिलता है, प्रीतम बाहर गया हो तो जल्दी आवे। कुंवारी कन्याओ को मन पसंद वर मिले, राजद्वारे में बहुत दिनों से मुकदमा चलता हो तो खत्म हो जावे, सब तरह सुख शांति हो, घर में धन जमा हो, पैसा – जायदाद का लाभ हो, रोग दूर हो जावे जो कुछ मन में कामना हो, वे सब संतोषी माता की कृपा से पूरी हो जाती है, इसमें कोई संदेह नहीं।

Santoshi Mata Vrat katha

वह पूछने लगी – यह व्रत कैसे किया जाता है यह भी बताओ तो बड़ी कृपा होगी।स्त्री कहने लगी – ‘सवा रूपये का गुड़ चना लेना, इच्छा हो तो सवा पांच का प्रसाद लेना बिना परेशानी, श्रद्धा और प्रेम से जीतना बन सके सवाया लेना। सवा रूपये से सवा पांच रूपये तथा इससे ज्यादा और भक्ति अनुसार ले। हर शुक्रवार को निराहार रह, कथा कहना – सुनना, इसके बिच क्रम टूटे नहीं, लगातार नियम पालन करना सुनने वाला मिले तो घी का दीपक जला उसके आगे जल के पात्र को रख कथा कहना परन्तु नियम न टूटे।

जब तक कार्य सिद्ध न हो, नियम पालन करना, कार्य सिद्ध हो जाने पर ही व्रत का उद्यापन करना, तीन मास में माता अवश्य फल देती है। यदि किसी के खोटे ग्रह हो तो माता एक वर्ष अवश्य कार्य सिद्ध करती है। कार्य सिद्ध होने पर ही उद्यापन करना चाहिए बिच में नहीं। उद्यापन में अढ़ाई सेर आटे का खाजा तथा ऐसी परिणाम से खीर तथा चने का साग रखना चाहिए। आठ लड़को को भोजन करना, जहां तक मिले, देवर- जेठ, भाई- बंदु, कुटुंब के लड़के लेना, न मिले तो रिश्तेदारों और पड़ोसियों के लड़के बुलाना, उन्हें भोजन करना, यथा शक्ति दक्षिणा दे माता का व्रत श्रद्धा पूर्वक पूरा करना। उस दिन घर में खटाई न खावे।

यह सुनकर बुढ़िया के लड़के की बहू चल दी। रस्ते में लकड़ी को बेच दिया और उन पेसो से गुड़ चना ले माता के व्रत की तयारी कर आगे चली और सामने मंदिर देख पूछने लगी- ये मंदिर किसका है? सब कहने लगे संतोषी माता का मंदिर है। यह सुनकर माता के मंदिर में जा माता जे चरणों में लोट गयी। दीन होकर विनती करने लगी- माँ! में निपट मुर्ख हु व्रत के नियम कुछ नहीं जानती।

Santoshi Mata Vrat katha

में बहुत दुखी हु! हे माता जग जननी! मेरा दुःख दूर कर, में तेरी शरण में हु, माता को दया आई। एक शुक्रवार बिता की दूसरे शुक्रवार को ही उसके पति का पत्र आया और तीसरे को उसका भेजा हुआ पैसा भी आ पहुंचा। यह देख जेठानी मुँह सिकोड़ने लगी- इतने दिनों में पैसा आया, इसमें क्या बड़ाई है। लड़के ताने देने लगे- काकी के पास अब पत्र आने लगे, रुपया आने लगे, अब तो काकी की खातिर बढ़ेगी, अब तो काकी बुलाने से भी नहीं बोलेगी।

बेचारी सरलता से कहती- भइया! पत्र आवे, रुपया आवे तो हम सब के लिए अच्छा है। ऐसा कहकर आखो में आसु भरकर संतोषी माता के मंदिर में जाकर मातेश्वरी के चरणों में गिर कर रोने लगी- माँ! मेने तुमसे पैसा नहीं माँगा। मुझे पैसे से क्या काम है? मुझे तो अपने सुहाग से काम है। में तो अपने स्वामी के दर्शन और सेवा मांगती हु। तब माता ने प्रसन्न होकर कहा- जा बेटी, तेरा पति आएगा। यह सुन खुशी से बावली होकर घर में जा काम करने लगी। अब संतोषी माँ विचार करने लगी- इस भोली पुत्री को मेने कह तो दियातेरा पतिं आवेगा, पर आवेगा कहा से?

वह तो स्वपन में भी इसे याद नहीं करता, मुझे जाना पड़ेगा। इस तरह माता बुढ़िया के बेटे के पास जा स्वपन में प्रकट हुई कहने लगी- साहूकार के बेटे! सोता है या जगता है? वह बोलै- माता! सोता भी नहीं हु और जगता भी नहीं हु, बिच में ही हु, कहो क्या आज्ञा है? माँ कहने लगी- तेरा घर- बार कुछ है या नहीं? वह बोला- मेरा सब कुछ है! माँ -बाप, भाई -बहन, बहू, क्या कमी है? माँ बोली- भोले पुत्र! तेरी स्त्री घोर कष्ट उठा रही है। माँ- बाप उसे दुःख दे रहे है, वह तेरे लिए तरस रही है, तू उसकी सुधि ले। वह बोला हा माता- यह तो मुझे मालूम है परन्तु में जाऊ कैसे?

प्रदेश की बात है, लेन- देन कोई हिसाब नहीं है, कोई जाने का रस्ता नजर नहीं आता, कैसे चला जाऊ? माँ कहने लगी- मेरी बात मान, सवेरे नहा- धोकर संतोषी माता का नाम ले, घी का दीपक जला, दंडवत प्रणाम कर दुकान पर जा बैठ। देखते -देखते तेरा लेन -देन सब चूक जायेगा, जमा माल बिक जायेगा, साँझ होते- होते धन का ढेर लग जायेगा।

सवेरे बहुत जल्दी उठ उसने सपने की बात कहि तो सब उसकी बात अनसुनी क्र उसका मजाक उड़ने लगे कहि सपने भी सच होते है? एक बूढ़ा बोला- देख भाई मेरी बात मान, इस प्रकार सच झूठ करने के बदले देवता ने जैसा खा है वैसा ही करने में तेरा क्या जाता है? वह बूढ़े की बात मान,कर स्नान कर के संतोषी माँ को दंडवत प्रणाम कर घी का दीपक जला, कर दुकान पर जा बैठा।

थोड़ी देर में वह क्या देखता है की देने वाले रुपया लाये, लेने वाले हिसाब लेने लगे, कोठे में भरे सामनो के खरीदार नकद दाम में सोदा करने लगे, श्याम तक धन का ढेर हो गया। माता का चमत्कार देख प्रसन्न हो मन में माता का नाम ले, घर ले जाने के वास्ते गहना, कपड़ा खरीदने लगाऔर वहा के काम से निपट वह घर को रवाना हुआ। वहा बहू बेचारी जंगल लकड़ी लेने जाती है, लौटते वक्त माँ के मंदिर में विश्राम करती है।

Santoshi Mata Vrat katha

वह तो उसका रोजना रुकने का स्थान था। दूर से धूल उड़ती देख वह माता से पूछती है- हे माता! ये धूल कैसे उड़ रही है? माँ कहती है- हे पुत्री! तेरा पति आ रहा है। अब तू ऐसा कर, लकड़ियों के तीन बोज बना ला, एक नदी किनारे रख, दूसरा मेरे मंदिर पर और ट्सरा अपने सर पर रख तेरे पति का गठा देख कर मोह पैदा होगा। वह वहा रुकेगा, नास्ता- पानी बना- खा पि कर माँ से मिलने जायेगा, तब तू लकड़ियों का बोझ उठा कर घर जाना और बिच चौक में गठा डाल क्र तीन आवाज जोर से लगाना- लो सासुजी! लकड़ियों का गठडा लो, भूसे की रोटी दो और नारियल के खोपरे में पानी दो, आज कोन महमान आया है?

माँ की बात सुन, बहु बहुत अच्छा माता! कह कर प्रसन्न हो लकड़ियों के तीन गठे ले आई। एक नदी तट पर, एक माता के मंदिर पर रखा, इतने में ही एक मुसाफिर आ पहुंचा। सुखी लकड़ी देख उसकी इच्छा हुई की अब यही विश्राम करे और भोजन बना- खा कर गांव जाये। इस प्रकार भोजन बना विश्राम कर, वह गांव को गया। सब से प्रेम से मिला, उस समय बहू सर पर लकड़ी का गठडा लिए आई। लकड़ी का भरी बोझ आंगन में डाल, जोर से तीन आवाज देती है- लो सासुजी! लकड़ी का गठडा लो, भूसे की रोटी दो, नारियल के खोपड़े में पानी दो, आज महमान कोन आया है?

यह सुनकर सास बाहर आई, अपने दिए हुए कष्टों को भूलाते हुआ बोली- बहू! ऐसा क्यों कहती है, तेरा मालिक ही तो आया है। आ बैठ, मीठे भात खा, भोजन कर, कपड़े- गहने पहन। इतने में आवाज सुन उसका स्वामी बाहर आता है और अंगूठी देख व्याकुल हो, माँ से पूछता है- माँ! ये कोन है? माँ कहती है- ये तेरी बहू है, आज 12 वर्ष हो गए तू जब से गया है तब से सरे गांव में जानवर की तरह भटकती फिरती है। कामकाज घर का कुछ भी करती नहीं, चार समय आ कर खा जाती है। अब तुझे देख कर भूसे की रोटी और नारियल के खोपरे में पानी मांगती है।

वह लज्जित हो बोलै- ठीक है माँ! मेने ऐसे भी देखा है और तुम्हे भी देखा है। अब मुझे दूसरे घर की चाबी दो में उसमे रहूंगा। तब माँ बोली- ठीक है! तेरी जैसी मर्जी कहकर चाबी का गुच्छा पटक दिया। उसने दूसरे कमरे की चाबी ली अपना सारा सामान जमाया। एक दिन में ही वह राजा के महल जैसा ठाठ- बाठ बन गया। अब क्या- वे दोनों सुख पूर्वक रहने लगे। इतने में अगला शुक्रवार आया। बहु ने अपने पति से खा मुझे माता के उद्यापन की तैयारी करनी है।

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पति बोला -बहुत अच्छा, ख़ुशी से करो। वह तुरंत ही उद्यापन की तैयारी करने लगी। जेठ के लड़को को भोजन के लिए कहने गयी। उसने मंजूर किया परन्तु पीछे जेठानी अपने बच्चो को सीखने लगी -देखो रे! भोजन के समय सब लोग कटाई मांगना, जिससे उसका उद्यापन पूरा न हो। लड़के जीमने आये, खीर पेट भरके खाई। परन्तु याद आते ही कहने लगे- हमे कुछ खटाई दो, खीर खाना हमे भाता नहीं, देखकर आरुचित होती है।

बहू कहने लगी खटाई किसी को नहीं दी जाएगी, यह तो संतोषी माता का प्रसाद है। लड़के तुरंत उठ खड़े हुआ, बोले पैसा लाओ। भोली बहु व्रत की कुछ कुछ जानती नहीं थी तो सो उन्हें पैसे दे दिए। लड़के उसी समय जाकर इमली ला खाने लगे। यह देख बहु पर माताजी ने कोप दिखाया। राजा के दूत उसके पति को पकड़ क्र ले गए। जेठ- जेठानी मन माने खोटे वचन कहने लगे -लूट- लूट कर धन इकट्ठा कर लाया था सो राजा के दूत पकड़ क्र ले गए। अब सब मालूम पड जायेगा जब जेल की हवा खायेगा। बहू से ये वचन सहन नहीं हुआ। रोती- रोती माता के मंदिर में गयी। हे माता तुमने ये क्या किया?

हसा कर अब क्यों रुलाने लगी। माता बोली- पुत्री! तूने उद्यापन करके मेरा व्रत भंग किया है, इतनी जल्दी सब बाते भुला दी। वह कहने लगी- माता! भूली तो नहीं हु, न कुछ अपराध किया, मुझे तो उन लड़को ने भूल में डाल दिया। मेने भूल से उन्हें पैसे दे दिए, मुझे क्षमा के दो माँ, माँ बोली ऐसी भी कभी भूल होती है? वह बोली- माँ मुझे माफ़ क्र दो, में फिर तुम्हारा उद्यापन करूंगी। माँ बोली- अब भूल मत करना वह बोली- अब न होगी, माँ बताओ वे कैसे आएंगे?

माँ बोली- जा पुत्री! तेरा पति तुझे रस्ते में ही आता मिलेगा। वह घर को चली। राह में पति आता मिला। उसने पूछा- तुम कहा गए थे? तब वह कहने लगा- इतना धन कमाया है, उसका टेक्स राजा ने माँगा था, वह भरने गया था। वह प्रसन्न हो बोली -भला हुआ, अब घर चलो। कुछ दिन बाद फिर शुक्रवार आया। वह बोली मुझे माता का उद्यापन करना है। पति ने कहा- अवश्य करो। वह फिर जेठ के लड़को से भोजन को कहने गयी।

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जेठानी ने एक दो बाटे सुनाई और लड़को को सीखा दिया तूम पहले की तरह खटाई मांगना। लड़के कहने लगे- हमे खीर नहीं भाता, जी बिगड़ता है, कुछ खटाई खाने को देना। वह बोली- खटाई खाने को नहीं मिलेगी, आना हो तो आओ। वह ब्राह्मणो के लड़के बुला भोजन करने लग गयी। यथा शक्ति दक्षिणा की जगह एक- एक फल उन्हें दिया। इससे संतोषी माता प्र्शन्न हुई। माता की कृपा होते ही नवें माह उसको चन्द्रमा के समान सुंदर पुत्र प्राप्त हुआ। पुत्र को लेकर माता के मंदिर जाने लगी। माँ ने सोचा की ये रोज आती है, आज क्यों न में ही इसके घर चलु। इसका आसरा देखु तो सही।

यही विचार क्र माता ने भयानक रूप बनाया। गुड़ और चने से सना मुख, ऊपर सूंड के समान होंठ, उस पर मखिया भीं भीना रही थी। दहलीज में पाव रखते ही उसकी सास चिल्लाई -देखो रे! कोई चुड़ैल डाकन चली आ रही है। लड़को ऐसे भगाओ नहीं तो किसी को खा जाएगी। लड़के डरने लगे और चिलाकर खिड़की बंद करने लगे। बहु रोशन दान में से देख रही थी, प्रसन्ता से पगली होकर चिलाने लगी- आज मेरी माताजी मेरे घर आई है। ये कहकर बच्चे को दूध पिलाने से हटती है। इतने में सास का क्रोध फुट पड़ा। बोली- रांड! इसे देख क्र किसी उतावली हुई है जो बच्चे को पटक दिया।

इतने में माँ के प्रताप से जहां देखो वही लड़के ही लड़के नजर आने लगे। माँ जी! में जिनका व्रत करती हु ये वो ही संतोषी माता है। इतना कह झट से सारे किवाड़ खोल देती है। सबने माता के चरण पकड़ लिए और विनती क्र कहने लगे- हे माता! हम मुर्ख है, हम अज्ञानी है पापी है। तुम्हारे व्रत की विधि हम नहीं जानते ,तुम्हारा व्रत भंग क्र हमने बहुत बड़ा अपराध किया है। हे माता आप हमारा अपराध क्षमा करे। इस प्रकार माता प्रसन्न हुई माता ने बहु को जैसा फल दिया वैसा सब को देना। जो पढ़े उसका मनोरथ पूर्ण हो। बोलो संतोषी माता की जय!